Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

खस्-से-रेत के टीले पर नौका टकराई। व्यस्त होकर मैं उठकर बैठ गया। अरे, यह तो इस पार आ पहुँचे। परन्तु यह जगह कौन-सी है? घर मेरा कितनी दूर है? रेत के ढेर के सिवाय और तो कहीं कुछ दीख ही नहीं रहा है? सवाल करने के पहले ही एकाएक कहीं पास ही कुत्तों का भूँकना सुनकर मैं और भी सीधा होकर बैठ गया। निश्चय ही कहीं पास में बस्ती है।


इन्द्र बोला, “तनिक ठहर श्रीकांत, मैं थोड़ा-सा घूमकर अभी लौट आऊँगा- तुझे अब कुछ डर नहीं है। इस कगारे के उस पार ही धीवरों के मकान हैं।”

साहस की इतनी परीक्षाएँ पास करने के उपरान्त अन्त में यहाँ आकर फेल हो जाने की मेरी बिल्कुनल इच्छा नहीं थी; और खास करके मनुष्य की इस किशोर अवस्था में, जिसके समान महा-विस्मयकारी वस्तु संसार में शायद और कोई नहीं है। एक तो वैसे ही मनुष्य की मानसिक गतिविधि बहुत ही दुर्जेय होती है; और फिर किशोर-किशोरी के मन का भाव तो, मैं समझता हूँ, बिल्कुनल ही अज्ञेय है। इसीलिए शायद, श्रीवृन्दावन के उन किशोर-किशोरी की किशोरलीला चिरकाल से ऐसे रहस्य से आच्छादित चली आती है। बुद्धि के द्वारा ग्राह्य न कर सकने के कारण किसी ने उसे कहा, 'अच्छी' किसी ने कहा, 'बुरी'-किसी ने 'नीति' की दुहाई दी, किसी ने 'रुचि' की और किसी ने कोई भी बात न सुनी-वे तर्क-वितर्क के समस्त घेरों का उल्लघंन कर बाहर हो गये। जो बाहर हो गये, वे डूब गये, पागल हो गये; और नाचकर, रोकर, गाकर-एकाकार करके संसार को उन्होंने मानो एक पागलखाना बना छोड़ा। तब, जिन लोगों ने 'बुरी' कहकर गालियाँ दी थीं उन्होंने भी कहा कि- और चाहे जो हो किन्तु, ऐसा रस का झरना और कहीं नहीं है। जिनकी 'रुचि' के साथ इस लीला का मेल नहीं मिलता था उन्होंने भी स्वीकार किया- इस पागलों के दल को छोड़कर हमने ऐसा गान और कहीं नहीं सुना। किन्तु यह घटना जिस आश्रय को लेकर घटित हुई, जो सदा पुरातन है, और साथ ही चिर-नूतन भी- वृन्दावन के वन-वन में होने वाली किशोर-किशोरी की उस सुन्दरतम लीला का अन्त किसने कब खोज पाया है, जिसके निकट वेदान्त तुच्छ है और मुक्ति-फल जिसकी तुलना में बारिश के आगे वारि-बिन्दु के समान क्षुद्र है! न किसी ने खोज पाया है और न कोई कभी खोज पायेगा। इसीलिए तो मैंने कहा कि उस समय मेरी वही किशोर अवस्था थी। भले ही उस समय यौवन का तेज और दृढ़ता न आई हो, परन्तु फिर भी उसका दम्भ तो आकर हाजिर हो गया था! आत्मसम्मान की आकांक्षा तो हृदय में सजग हो गयी थी! उस समय अपने सखा के निकट अपने को कौन डरपोक सिद्ध करना चाहेगा? इसलिए मैंने उसी दम जवाब दिया, “मैं डरूँगा क्यों? अच्छा तो है, जाओ।” इन्द्र ने और दूसरा वाक्य खर्च न किया और वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ अदृश्य हो गया।

ऊपर सिर पर अन्धकार-प्रकाश की वह आँख-मिचौनी हो रही थी, पीछे बहुत दूर तक अविश्रान्त सतत गर्जन-तर्जन हो रहा था और सामने वही रेती का किनारा था। यह कौन स्थान है, सोच ही रहा था कि इन्द्र दौड़ता हुआ आकर खड़ा हो गया। बोला, “श्रीकांत, तुझसे एक बात कहने को लौट आया हूँ। यदि कोई मच्छ माँगने आवे तो खबरदार देना नहीं- कहे देता हूँ, खबरदार, हरगिज न देना। ठीक मेरे समान रूप बनाकर यदि कोई आवे, तो भी मत देना। कहना, तेरे मुँह पर धूल, इच्छा हो तो तू खुद ही उठा ले जा, खबरदार! हाथ से किसी को उठाकर न देना, भले ही मैं ही क्यों न होऊँ- खबरदार!”

“क्यों भाई?”

“लौटने पर बताऊँगा- किन्तु खबरदार।” यह कहते-कहते वह जैसे आया था वैसे ही दौड़ता हुआ चला गया।

इस दफे नख से शिख तक मेरे सब रोंगटे खड़े हो गये। जान पड़ा कि मानो शरीर की प्रत्येक शिरा उपशिरा में से बरफ का गला हुआ पानी बह चला है। मैं बिल्कुयल बच्चा तो था नहीं, जो उसके इशारे का मतलब बिल्कुंल न भाँप सकता! मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएँ घट चुकी हैं जिनकी तुलना में यह घटना समुद्र के आगे गौ के खुर के गढ़े में भरे हुए पानी के समान थी। किन्तु फिर भी इस रात्रि की यात्रा में जो भय मैंने अनुभव किया, उसे भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मालूम होता था कि भय के मारे होश-हवास गुम करने की अन्तिम सीढ़ी पर आकर ही मैंने पैर रख दिया है। प्रतिक्षण जान पड़ता था कि कगार के उस तरफ से मानो कोई झाँक-झाँककर देख रहा है। जैसे ही मैं तिरछी दृष्टि से देखता हूँ, वैसे ही मानो वह सिर नीचा करके छिप जाता है।

समय कटता नहीं था। मानो इन्द्र ने जाने कितने युग हुए चला गया है- और लौट नहीं रहा है।

ऐसा मालूम हुआ मानो किसी मनुष्य की आवाज सुनी हो। जनेऊ को अंगूठे में सैकड़ों बार लपेटकर मुख नीचा करके कान खड़े करके सुनने लगा। गले की आवाज क्रमश: अधिक साफ होने लगी, अच्छी तरह मालूम पड़ने लगा कि दो-तीन आदमी बातचीत करते हुए इसी तरह आ रहे हैं। उनमें से एक तो इन्द्र है और बाकी दो हिंदुस्तानी। वे हों चाहे जो, किन्तु उनके मुख की ओर देखने के पूर्व मैंने यह अच्छी तरह देख लिया कि चाँदनी में उनकी छाया जमीन पर पड़ी है या नहीं! क्योंकि इस अवि-संवादी सत्य को मैं छुटपन से ही अच्छी तरह जानता था कि 'उन लोगों' (भूतों) की छाया नहीं पड़ती!”

आ:, यह तो छाया है! उतनी ही साफ, फिर भी छाया है! संसार में उस दिन किसी भी आदमी ने और किसी वस्तु को देखकर, क्या मेरे जैसी तृप्ति पाई होगी? पाई हो या न पाई हो, परन्तु यह बात तो मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि दृष्टि का चरम आनन्द जिसे कहते हैं, वह यही था। जो लोग आए उन्होंने असाधारण तेजी से उन बड़े-बड़े मच्छों को नाव में से उठाकर एक जाल जैसे वस्त्र के टुकड़े में बाँध लिया, और उसके बदले में उन्होंने इन्द्र की मुट्ठी में जो कुछ थमा दिया उसने 'खन्' से एक मृदु-मधुर शब्द करके अपना परिचय भी मेरे आगे पूर्णत: गुप्त न रहने दिया।

इन्द्र ने नाव खोल दी; परन्तु बहाव में नहीं छोड़ी। धार के पास-पास, प्रवाह के प्रतिकूल, लग्गी से ठेलते हुए वह धीरे-धीरे अग्रसर होने लगा।

मैंने कोई बात नहीं कही, क्योंकि मेरा मन उस समय उसके विरुद्ध घृणा के भाव से और एक प्रकार के क्षोभ से लबालब भर गया था। किन्तु यह क्या! अभी-अभी ही तो उसे चन्द्रमा के प्रकाश में छाया डालते हुए, लौटते देखकर अधीर आनन्द से दौड़कर छाती से लगा लेने के लिए उन्मुख हो उठा था!

हाँ, सो मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। तनिक-सा दोष देखते ही, कुछ क्षणपूर्व की सभी बातें भूलते उसे कितनी-सी देर लगती है! राम! राम! राम! उसने इस तरह रुपये प्राप्त किये! अब तक मछली चुराने का यह व्यापार मेरे मन में, बहुत स्पष्ट तौर से, चोरी के रूप में शायद स्थान न पा सका था! क्योंकि लड़कपन से ही, रुपये पैसों की चोरी ही मानो वास्तविक चोरी है-और सब, अनीती भले ही हो किन्तु, न जाने क्यों ठीक-ठीक चोरी नहीं है- इस तरह की अद्भुत धारणा प्राय: सभी लड़कों की होती है। मेरी भी यही धारणा थी। ऐसा न होता तो इस 'खन्' शब्द के कान में जाते ही इतने समय का इतना वीरत्व, इतना पौरुष, सब कुछ क्षण-भर में इस प्रकार शुष्क तृण के समान न झड़ जाता। यदि उन मच्छों को गंगा में फेंक दिया जाता- अथवा और कुछ किया जाता- केवल रुपयों के साथ उनका संसर्ग घटित न होता, फिर भी हमारी उस मत्स्य-संग्रह-यात्रा को कोई 'चोरी' कहकर पुकारता, तो शायद गुस्से में आकर मैं उसका सिर फोड़ देता और समझता कि उसने वास्तव में जो सजा मिलनी चाहिए वही पाई है- किन्तु राम! राम! यह क्या! यह काम तो जेलखाने के कैदी किया करते हैं!

इन्द्र ने बात शुरू की पूछा, “तुझे दूसरा भी डर न लगा, क्यों रे श्रीकांत?”

मैंने संक्षेप में जवाब दिया, “नहीं!”

इन्द्र बोला, “किन्तु तेरे सिवा वहाँ और कोई बैठा न रह सकता, यह जानता है तू? तुझे मैं खूब प्यार करता हूँ- मेरा ऐसा दोस्त और कोई नहीं है। मैं अब जब आऊँगा, सिर्फ तुझे ही लाऊँगा। क्यों?”

मैंने जवाब नहीं दिया। किन्तु इसी समय उसके मुख पर तुरंत के मेघ मुक्त चन्द्रमा का जो प्रकाश पड़ा, उससे मुख पर जो कुछ दिखाई दिया उससे एकाएक मैं अपना इतनी देर का सब क्रोध, क्षोभ भूल गया। मैंने पूछा, “अच्छा इन्द्र, तुमने कभी 'उन सब को1 देखा है?”

“किन सबको?”

“वही जो मच्छ माँगने आते हैं?”

“नहीं भाई, देखा तो नहीं है, लेकिन लोग जो कहते हैं वह सुना है।”

“अच्छा तुम यहाँ अकेले आ सकते हो?”

इन्द्र हँसा, बोला, “मैं तो अकेला ही आया करता हूँ।”

“डर नहीं लगता?”

“नहीं राम का नाम लेता हूँ, फिर वे किसी तरह नहीं आ सकते।”

कुछ देर रुककर फिर कहना शुरू किया, “राम-नाम क्या कोई साधारण चीज है रे? यदि तू राम का नाम लेते-लेते साँप के मुँह में चला जाए, तो तेरा कुछ न बिगडेग़ा। देखेगा, कि मारे डर के सभी रास्ता छोड़कर भागने लगे हैं। किन्तु डरने से काम नहीं चलता। तब तो वे जान जाते हैं कि, यह सिर्फ चालाकी कर रहा है-वे सब अन्तर्यामी जो हैं!”

रेती का किनारा खत्म होते ही कंकड़ों का किनारा शुरू हो गया। उस पार की अपेक्षा इस पार पानी का बहाव बहुत कम था। बल्कि यहाँ तो मालूम हुआ मानो बहाव उलटी तरफ जा रहा है। इन्द्र ने लग्गी उठाकर कर्ण (पतवार) हाथ में लेते हुए कहा, “वह जो सामने वन सरीखा दीख पड़ता है, उसी में से होकर हमें जाना है। यहाँ जरा मैं उतरूँगा। जाऊँगा और आ जाऊँगा। देर न लगेगी। क्यों उतर जाऊँ?”

1. 'उन सब' से तात्पर्य भूतों का है। बंगाल में प्रवाद है कि अकेले में भूत मछली माँगने आते हैं।

इच्छा ने रहते भी मैंने कहा, 'अच्छा' क्योंकि 'नहीं' कहने का रास्ता तो मैं एक प्रकार से आप ही बन्द कर चुका था। और अब इन्द्र भी मेरी निर्भीकता के सम्बन्ध में शायद निश्चिन्त हो गया था। परन्तु बात मुझे अच्छी न लगी। यहाँ से वह जगह ऐसी जंगल सरीखी अंधेरी दीख पड़ती थी कि अभी-अभी राम-नाम का असाधारण माहात्म्य श्रवण करके भी, उस अंधकार में, प्राचीन वट-वृक्ष के नीचे, डोंगी के ऊपर अकेले बैठे रहकर, इतनी रात को राम-नाम का शक्ति-सामर्थ्य जाँच करने की मेरी जरा भी प्रवृत्ति नहीं हुई और शरीर में कँपकँपी होने लगी। यह ठीक है कि मछलियाँ और नहीं थीं, इसलिए मछली लेने वालों का शुभागमन न हो सकेगा, किन्तु उन सबका लोभ मछलियों के ऊपर ही है, यह भी कौन कह सकता है? मनुष्य की गर्दन मरोड़ कर गुनगुना रक्त पीने और मांस खाने का इतिहास भी तो सुना गया है!

बहाव की अनुकूलता और डाँड़ की ताड़ना से डोंगी सर्राटे से आगे बढ़ने लगी। और भी कुछ देर जाते ही, दाहिनी बाजू का गर्दन तक डूबा हुआ जंगली झाऊ और काँस का वन माथा उठाकर हम दोनों असीम-साहसी मानव-शिशुओं की तरफ विस्मय से स्तब्ध हो देखता रहा और उसमें से कोई-कोई झाड़ तो सिर हिलाकर मानो अपना निषेध जताने लगा! बाईं ओर भी उन्हीं के आत्मीय परिजन खूब ऊँचे कंकरीले किनारों पर फैले हुए थे; वे भी उसी भाव से देखते रहे और उसी तरह मना करने लगे। मैं अगर अकेला होता तो निश्चय से उनका यह संकेत अमान्य नहीं करता; परन्तु मेरा कर्णधार जो था, उसके निकट ऐसा मालूम हुआ कि मानो एक राम-नाम के जोर से उनके समस्त आवेदन-निवेदन एक बार ही व्यर्थ हो गये। उसने किसी तरफ भौंहें तक न फिराईं। दाहिनी ओर के टीले के अधिक विस्तार के कारण यह जगह एक छोटी-मोटी झील के समान हो गयी थी- सिर्फ उत्तर की ओर का मुँह खुला हुआ था। मैंने पूछा, “अच्छा, नाव को बाँधकर ऊपर जाने का घाट तो है नहीं, तुम जाओगे किस तरह?”

इन्द्र बोला, “यह जो बड़का वृक्ष है, उसके पास में ही एक छोटा-सा घाटहै।”

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